बिहार में फिर जागी है जाति की राजनीति, BJP के लिए राह नहीं दिख रही आसान, लालू की मौजूदगी ने बढ़ा दी हैं मुश्किले

पटनाः बिहार के चुनावी रंग को समझना चुनावी-राजनीतिक विशेषज्ञों-विश्लेषकों के लिए इस बार कठिन लग रहा है। पिछले दो लोकसभा चुनावों में ऐसी स्थिति नहीं थी। इसलिए कि कांग्रेस के लंबे राजकाज से ऊब चुके लोगों का नरेंद्र मोदी का नए चेहरे का आकर्षण था। उन

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पटनाः बिहार के चुनावी रंग को समझना चुनावी-राजनीतिक विशेषज्ञों-विश्लेषकों के लिए इस बार कठिन लग रहा है। पिछले दो लोकसभा चुनावों में ऐसी स्थिति नहीं थी। इसलिए कि कांग्रेस के लंबे राजकाज से ऊब चुके लोगों का नरेंद्र मोदी का नए चेहरे का आकर्षण था। उन्हें दूसरा कार्यकाल देने में भी किसी को हिचक नहीं थी। इसलिए कि उन्होंने देश को आगे बढ़ाने की जो दिशा पहले कार्यकाल में तय की थी, लोगों को वह पसंद आया था। तीसरे कार्यकाल के लिए इस बार भी भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने मोदी के चेहरे पर ही भरोसा किया है। सच कहें तो पहले से कहीं अधिक भरोसा एनडीए को इस बार नरेंद्र मोदी के चेहरे पर है। और, यह भी सच है कि भाजपा समेत तमाम एनडीए नेताओं के पास ‘मोदी नाम केवलम’ के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है।

नीतीश पर लोगों को भरोसा नहीं


नीतीश कुमार पर भी बिहार के लोगों को नरेंद्र मोदी जैसा ही कभी भरोसा था। वर्ष 2005 में भाजपा के सहयोग से नीतीश कुमार ने बिहार की सत्ता संभाली थी। उनके सीएम रहते 24 साल बीत गए। यानी अवधि के हिसाब से नीतीश कुमार का यह चौथा कार्यकाल है। यह अलग बात है कि कई बार खेमा बदलने के कारण इस दौरान उन्होंने आधा दर्जन बार सीएम पद की शपथ ली है। जिस तरह 2005 से 2015 तक बिहार के लोगों ने नीतीश को आइडियल स्टेट्समैन के रूप में देखा था, उस पर 2020 में कुहरा छा गया। इसकी मूल वजह नीतीश कुमार का बार-बार पाला बदल की राजनीति रही। उम्र और औकात में नीतीश अब जनता की नजरों में खारिज होने लगे हैं। उनका प्रभाव अब वैसा नहीं दिखता, जैसा 2005 से 2015 के दौरान था। अगर बिहार की राजनीति का रंग समझने में लोगों के पसीने छूट रहे हैं तो इसका बड़ा कारण यही है कि अब जनता के वोट खींचने में नीतीश कुमार मददगार नहीं रह गए हैं। सच तो यह है कि अब उनके सामने भी वोट के लिए नरेंद्र मोदी की ओर टकटकी लगाए रहने की नौबत है।

नीतीश भी अब नरेंद्र के ही भरोसे


एनडीए के घटक दलों ने आंख मूंद कर नरेंद्र मोदी पर भरोसा किया है। इस भरोसे का एक ही उदाहरण काफी है। हर बार एनडीए के घटक दल अलग-अलग घोषणापत्र जारी करते थे। यह पहला मौका है, जब ऐसा नहीं हुआ। सिर्फ भाजपा ने घोषणापत्र जारी किया। बाकी दलों को उसी घोषणापत्र को अपना मानने के लिए विवश होना पड़ा। यह गठबंधन धर्म और सांगठनिक एकता के लिहाज से अच्छा भी है। अलग-अलग राग अलापने से तो कई बार गठबंधन में बेमेल वादों की हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसे समझने के लिए बिहार में एक उदाहरण काफी है। सीएए, एनआरसी और यूसीसी का नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ रहते भी कभी समर्थन नहीं किया। फर्ज कीजिए कि अगर जेडीयू का घोषणापत्र अलग होता तो नीतीश उसमें इन मुद्दों पर क्या कहते। वैसे भी नीतीश को इस बात का गुमान है कि भाजपा के साथ रहने के बावजूद उन्होंने मुसलमानों का अहित नहीं होने दिया। वे इस बात को आजकल अपनी हर चुनावी सभाओं में दोहराते हैं।

आरजेडी में बढ़ा जाति का दायरा


बिहार के राजनीतिक रंग में भंग डालने का काम इस बार विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया‘ ने कर दिया है। जातीय गोलबंदी के नाम पर बिहार में अस्तित्व में आया इंडी अलायंस का प्रमुख घटक राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) को भी भाजपा की तरह अपना कोर एजेंडा पता है। उसे अपने कोर वोटर की भी जानकारी है। भाजपा अगर हिन्दुत्व, मंदिर, मुसलमान, पाकिस्तान जैसे कोर एजेंडे के सहारे दशक भर से लगातार कामयाबी हासिल करती रही है तो आरजेडी को भी अपने कोर वोटर और एजेंडे की अच्छी समझ है। उसे पता है कि 17 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम और 14 प्रतिशत से अधिक यादव (लगभग 32 प्रतिशत) वोटर तो कालांतर से उसके अपने ही हैं। अगर अन्य जातियों में भी उसने पांच-सात प्रतिशत वोटों का बंदोबस्त कर लिया तो उसे एनडीए को टक्कर देने में न सिर्फ आसानी होगी, बल्कि लगातार बिगड़ती गई अपनी हालत सुधारने में भी उसे सहूलियत होगी।

आरजेडी की इस बार नई रणनीति


इसी रणनीति के तहत आरजेडी ने इस बार अपने कोटे की 26 सीटों में तीन सीटें तो निषाद समुदाय का नेतृत्व करने वाले मुकेश सहनी की वीआईपी को दे दीं। यादवों को आठ तो मुसलमानों को दो सीटें दी हैं। दो सवर्णों को भी आरजेडी ने उम्मीदवार बनाया है। भूमिहार और कुशवाहा जाति पर पहली बार आरजेडी ने भरोसा किया है। हालांकि लालू को मात देने के लिए एनडीए ने भी इस बार आठ यादवों को मौका दिया है। दोनों गठबंधनों ने कोइरी जाति के 11 उम्मीदवार उतारे हैं। यानी बिहार में एनडीए और इंडिया ने सम्मिलित रूप से 16 यादवों और कोइरी जाति के 11 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। आश्चर्य की कोइरी जाति की आबादी करीब पांच प्रतिशत ही बिहार में है।

इधर मोदी तो उधर लालू-तेजस्वी


जातीय गोलबंदी दोनों गठबंधनों- एनडीए और इंडिया की ओर से जबरदस्त हुई है। रही बात चेहरे की तो बिहार में स्थानीय नेतृत्व को सिर्फ इंडिया के लोग ही देख रहे हैं। उनके सामने लालू प्रसाद यादव और उनके बेटे तेजस्वी यादव का चेहरा है। राहुल के चेहरे की चमक बिहार में तेजस्वी के मुकाबले धुंधली है। एनडीए में लोग इस बार नीतीश के चेहरे पर भरोसा नहीं कर रहे। यहां तक कि भाजपा समर्थकों को भी अब नीतीश पर भरोसा नहीं है। विश्वसनीयता का यह संकट खुद नीतीश ने खड़ा किया है। कैर, एनडीए के सभी दलों को नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही भरोसा है। इस भरोसे की बड़ी वजह यह है कि बिहार में पिछले दो लोकसभा चुनावों में एनडीए को जो कामयाबी मिली, उसके पीछे नरेंद्र मोदी का ही चेहरा था। तभी तो बिहार में 15 साल राज करने वाले आरजेडी की हालत 2004 के बाद लगातार बिगड़ती गई। वर्ष 2004 में आरजेडी ने लोकसभा की 22 सीटें जीती थीं। 2009 में आरजेडी धड़ाम होकर चार सीटों पर आ गई। 2019 में तो इसे शून्य पर आउट हो जाना पड़ा।

एनडीए को मोदी से ही उम्मीद


नरेंद्र मोदी ने पीएम के रूप में अपना दो कार्यकाल पूरा कर लिया है। तीसरे के लिए मैदान में हैं। इस बीच जम्मू कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति, तीन तलाक का कानून खत्म करने, अयोध्या में राम मंदिर और भारत की वैश्विक साख-पहचान जैसे उनकी सरकार के कई उल्लेखनीय कामों के लोग मुरीद हुए तो खासा तादाद उनकी भी है, जो अपेक्षाओं पर खरा न पाकर मोदी के विरोधी बन गए हैं। फिर भी आज की तारीख में जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता और एनडीए में शामिल उनके दलों को अगर नरेंद्र मोदी पर पूरा भरोसा है तो जनता का मिजाज भी इसी अनुरूप होना चाहिए। पर, जातीय भंवर में फिर से उलझ चुके बिहार के लोगों के मन की थाह पाना मुश्किल है। लोग उम्मीदवारों की जाति देख रहे। दल के शीर्ष नेतृत्व की जाति निहार रहे हैं। नरेंद्र मोदी काम भी देख रहे। मसलन नतीजे के बारे में अनुमान लगाना अब आसान नहीं रह गया है।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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